श्री बदरीनाथ धाम उत्तराखण्ड प्रदेश के सीमान्त जनपद चमोली के उत्तरी भाग में हिमाच्छादित पर्वत
श्रृंखलाओं के मध्य स्थित है । इस धाम का वर्णन स्कन्द पुराण, केदारखण्ड, श्रीमद्भागवत आदि अनेक धार्मिक
ग्रन्थों में आया है। पौराणिक श्रुति के अनुसार महाबली राक्षस सहस्रकवच के अत्याचारों से परेशान हो कर
ऋषि-मुनियों की प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने धर्म के पुत्र के रूप में दक्ष प्रजापति की पुत्री मातामूर्ति के
गर्भ से नर-नारायण के रूप भगवान ने अवतार लिया और जगत कल्याण के लिए इस स्थान पर घोर तपस्या की
थी । भगवान बदरीनाथ जी का मन्दिर अलकनन्दा के दाहिने तट पर स्थित है जहां पर भगवान बदरीनाथ जी
की शालिग्राम पत्थर की स्वयम्भू मूर्ति की पूजा होती है ।
नारायण की यह मूर्ति चतुर्भुज अर्द्धपद्मासन
ध्यानमगन मुद्रा में उत्कीर्णित है । बताते हैं कि भगवान विष्णुजी ने नारायण रूप में सतयुग के समय यहाँ पर
तपस्या की थी । यह मूर्ति अनादिकाल से है और अत्यन्त भव्य एवं आकर्षक है । इस मूर्ति की सबसे बड़ी
विशेषता यह है कि जिसने जिस रूप में इसे देखा उसे इसमें अनेक इष्टदेवों के दर्शन प्राप्त हुये। आज भी हिन्दू,
बौद्ध, जैन, सिख आदि सभी वर्गों के अनुयायी यहाँ आकर श्रद्धा से पूजा अर्चना करते हैं । इस धाम का नाम
बदरीनाथ क्यों पड़ा इसकी भी एक पौराणिक कथा है। राक्षस सहस्रकवच के संहार से बचनबद्ध होकर जब
भगवान विष्णु नर-नारायण के बालरूप में थे तो देवी लक्ष्मी भी श्री नारायण जी की रक्षा में बेर-वृक्ष के रूप में
अवतरित हुई तथा सर्दी, वर्षा, तूफान, हिमादि से भगवान की रक्षा के लिए बेर-वृक्ष ने नारायण को चारों ओर
से ढक लिया । बेर-वृक्ष को बदरी भी कहते हैं। इसी कारण से लक्ष्मीनाथ भगवान विष्णु लक्ष्मी के बदरी रूप से
इस धाम का बरीनाथ कहलाया जाता है ।
सतयुग में यह क्षेत्र मुक्तिप्रदा, त्रेतायुग में योगसिद्धिदा, द्वापरयुग में
विशाला और कलयुग में यह क्षेत्र बदरिकाश्रम के नाम से विख्यात हुआ । पुराणों में एक श्रुति है कि जब द्वापर में
भगवान विष्णु इस क्षेत्र को त्यागकर जाने लगे तब देवताओं ने उनसे यहीं रहने का आग्रह किया तो भगवान ने
देवताओं के आग्रह पर यह संकेत दिया कि कलयुग का समय आने वाला है और कलयुग में उनके लिए साक्षात
रूप से यहाँ निवास करना सम्भब नहीं होगा किन्तु नारदशिला के नीचे अलकनन्दा नदी में स्थित नारद कुण्ड में
उनकी एकदिव्य मूर्ति है जो उस मूर्ति के दर्शन करेगा ,उसे मेरे साक्षात दर्शन का फल प्राप्त होगा । तत्पश्चात
ब्रह्मादि देवताओं ने नारदकुण्ड से इस दिव्य मूर्ति को निकालकर भैरवी चक्र के केंद में विधिवत स्थापित किया ।
देवताओं ने भगवान के नित्य नियम भोग पूजा की व्यवस्था भी की तथा देवर्षि नारद जी उपासक नियुक्त किये
गये । आज भी ग्रीष्मकाल में छः माह भगवान विष्णु की पूजा मनुष्यों द्वारा की जाती है तथा शीतकाल में छः
माह जब इस क्षेत्र में भारी बर्फ गिर जाती है तो भगवान विष्णु की पूजा तब देवर्षि नारद जी स्वयं करते हैं ।
मान्यता है कि शीतकाल में जब कपाट बन्द हो जाते हैं तो अखण्ड ज्योति जलती रहती है तथा नारद जी पूजा व
भोग की व्यवस्था करते हैं। इसीलिए आज भी इस क्षेत्र को नारद क्षेत्र कहा जाता है । छः माह बाद जब कपाट
खुलते हैं तो मन्दिर के अन्दर अखण्ड ज्योति जलती रहती है जिसके दर्शनों हेतु देश-विदेश से श्रद्धालुओं की
भीड़ कपाट खुलने के दिन से ही लगी रहती है ।
राक्षक सहस्रकवच के संसहार की कथा से जुडे हुये पवित्र स्थल धर्मशिला, मातामूर्ति मन्दिर , नर-नारायण पर्वत
व शेषनेत्र नाम के दो सरोवर आज भी बदरिकाश्रम में विद्यमान हैं । भैरवी चक्र की रचना भी उसी कथा से जुड़ी
है।यह पवित्र क्षेत्र गन्धमादन, नरनारायण आश्रम के नाम से विख्यात था और मणिभद्रपुर (माणा गांव वर्तमान
में) तथा नर-नारायण व कुबेर पर्वत आज मी शोभायमान हैं । माणा गाँव के निकट व्यास गुफा में महर्षि
वेदव्यास ने पुराणों की रचना की थी । कालान्तर में बौद्धों का प्रावल्य हुआ और बौद्धों के हीनयान महायान
सम्प्रदायों के पारस्परिक संघर्ष ने बदरीनाथ को भी ग्रस्त किया और भगवान की मूर्ति की रक्षा में अपने को
असमर्थ पाकर पुजारीगणों ने मूर्ति को नारदकुण्ड में छिपा लिया तथा वहां से पलायन कर गये । शंकर भगवान
के अवतार स्वरूप दक्षिण भारत में जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ । वे ग्यारह वर्ष की अल्पायु में
ही जोशीमठ होते हुये बदरीनाथ पधारे और जब मन्दिर खाली देखा तब अपने योगबल तपोवल से उन्हें प्रतीत
हुआ कि मूर्ति नारदकुण्ड में है। वे स्वयं नारदकुण्ड में उतरे और मूर्ति को बाहर निकाला । जो काले पत्थर की थी
। काले पत्थर की मूर्ति को देखकर उन्होंने सोचा कि यह भगवान विष्णु की मूर्ति नहीं हो सकती है और उन्होंने
फिर उसे नारदकुण्ड में डाल दिया और पुनः नारद कुण्ड में डुबकी लगाई किन्तु हर बार उनके हाथ में वही मूर्ति
आई तब उनको विश्वास हो गया कि यही भगवान विष्णु की मूर्ति है । आदि शंकराचार्य जी ने नारायण की मूर्ति
को भैरवीचक्र के केन्द्र में विधिवत उसी स्थान पर स्थापना की जहां पर वह वर्तमान में विराजमान है ।
यह भी
माना जाता है कि बदरीनाथ जी के मन्दिर का जीर्णोद्धार आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा पुनः कराया गया।
आदिगुरू शंकराचार्य जी ने जोशीमठ में तपस्या की और ज्योतिष्पीठ की स्थापना की। बदरीनाथ के निकट
व्यासगुफा में भी आदि शंकराचार्य जी ने चार वर्षों तक निवास कर ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद तथा
सनत्शुजातीय पर प्रमाणिक भाष्य लिखा था । भगवान शंकर के अवतार के रूप में जगतगुरू शंकराचार्य के इस
क्षेत्र के हिन्दू मन्दिरों की सुव्यवस्था के प्रबन्ध भी किये और श्री बदरीनाथ को सारे भारतवर्ष के लिए स्थापित
चार धामों में से श्रेष्ठतम धाम के रूप में प्रतिष्ठित किया तथा अन्य तीन धाम द्वारिका, जगन्नाथ एवं रामेश्वर से
सम्बद्ध किया । आज भी इन चारों धामों का भारत की संस्कृति व राष्ट्रीय एकीकरण की दृष्टि से विशेष महत्व है
। जगतगुरू शंकराचार्य जी के काल से बदरीनाथ में स्वयं भगवान विष्णु तीर्थ के अधिष्ठाता के रूप में पूजित हुये
और शुद्ध वैष्णव पद्धति से दैनिक नित्य नियम, पूजा-अर्चना प्रारम्भ हुई तभी से यह परम्परा चली आ रही है ।
श्री बदरीनाथ मन्दिर के प्रमुख पुजारी दक्षिण भारत के मालावार क्षेत्र के आदि शंकराचार्य के वंशजों में से ही
उच्चकोटि के शुद्ध नम्बूदरी ब्राह्मण परिवार से ही होते हैं । यह प्रमुख पुजारी रावल के नाम से जाने जाते हैं । श्री
बदरीनाथ जी की पूजा वैष्णव पद्धति से होती है।
- In and Around Temple
- निकटवर्ती स्थान
मंदिर के अंदर और आसपास
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के मध्य स्थित है । इस धाम का वर्णन स्कन्द पुराण, केदारखण्ड, श्रीमद्भागवत आदि अनेक धार्मिक ग्रन्थों में
आया है। पौराणिक श्रुति के अनुसार महाबली राक्षस सहस्रकवच के अत्याचारों से परेशान हो कर ऋषि-मुनियों
की प्रार्थना सुनकर भगवान विष्णु ने धर्म के पुत्र के रूप में दक्ष प्रजापति की पुत्री मातामूर्ति के गर्भ से नर-
नारायण के रूप भगवान ने अवतार लिया और जगत कल्याण के लिए इस स्थान पर घोर तपस्या की थी ।
भगवान बदरीनाथ जी का मन्दिर अलकनन्दा के दाहिने तट पर स्थित है जहां पर भगवान बदरीनाथ जी की
शालिग्राम पत्थर की स्वयम्भू मूर्ति की पूजा होती है। नारायण की यह मूर्ति चतुर्भुज अर्द्धपद्मासन ध्यानमग्न मुद्रा
में उत्कीर्णित है । बताते हैं कि भगवान विष्णुजी ने नारायण रूप में सतयुग के समय यहाँ पर तपस्या की थी ।
यह मूर्ति अनादिकाल से है और अत्यन्त भव्य एवं आकर्षक है । इस मूर्ति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि
जिसने जिस रूप में इसे देखा उसे इसमें अनेक इष्टदेवों के दर्शन प्राप्त हुये। आज भी हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिख आदि
सभी वर्गों के अनुयायी यहाँ आकर श्रद्धा से पूजा अर्चना करते हैं ।
इस धाम का नाम बदरीनाथ क्यों पड़ा इसकी भी एक पौराणिक कथा है। राक्षस सहस्रकवच के संहार से
बचनबद्ध होकर जब भगवान विष्णु नर-नारायण के बालरूप में थे तो देवी लक्ष्मी भी अपने पति की रक्षा में
बेर-वृक्ष के रूप में अवतरित हुई तथा सर्दी, वर्षा, तूफान, हिमादि से भगवान की रक्षा के लिए बेर-वृक्ष ने
नारायण को चारों ओर से ढक लिया । बेर-वृक्ष को बदरी भी कहते हैं। इसी कारण से लक्ष्मीनाथ भगवान विष्णु
लक्ष्मी के बदरी रूप से इस धाम का बरीनाथ कहलाया जाता है । सतयुग में यह क्षेत्र मुक्तिप्रदा, त्रेतायुग में
योगसिद्धिदा, द्वापरयुग में विशाला और कलयुग में यह क्षेत्र बदरिकाश्रम के नाम से विख्यात हुआ । पुराणों में
एक श्रुति है कि जब द्वापर में भगवान विष्णु इस क्षेत्र को त्यागकर जाने लगे तब देवताओं ने उनसे यहीं रहने का
आग्रह किया तो भगवान ने देवताओं के आग्रह पर यह संकेत दिया कि कलयुग का समय आने वाला है और
कलयुग में उनके लिए साक्षात रूप से यहाँ निवास करना सम्भब नहीं होगा किन्तु नारदशिला के नीचे
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होगा ।
तत्पश्चात ब्रह्मादि देवताओं ने नारदकुण्ड से इस दिव्य मूर्ति को निकालकर भैरवी चक्र के केंद में विधिवत
स्थापित किया । देवताओं ने भगवान के नित्य नियम भोग पूजा की व्यवस्था भी की तथा देवर्षि नारद जी
उपासक नियुक्त किये गये । आज भी ग्रीष्मकाल में छः माह भगवान विष्णु की पूजा मनुष्यों द्वारा की जाती है
तथा शीतकाल में छः माह जब इस क्षेत्र में भारी बर्फ गिर जाती है तो भगवान विष्णु की पूजा तब देवर्षि नारद
जी स्वयं करते हैं । मान्यता है कि अब भी शीतकाल में जब कपाट बन्द हो जाते हैं तो अखण्ड ज्योति जलती
रहती है तथा नारद जी पूजा व भोग की व्यवस्था करते हैं। इसीलिए आज भी इस क्षेत्र को नारद क्षेत्र कहा जाता
है । छः माह बाद जब कपाट खुलते हैं तो मन्दिर के अन्दर अखण्ड ज्योति जलती रहती है जिसके दर्शनों हेतु
देश-विदेश से श्रद्धालुओं की भीड़ कपाट खुलने के दिन से ही लगी रहती है ।
राक्षक सहस्रकवच के संसहार की कथा से जुडे हुये पवित्र स्थल धर्मशिला, मातामूर्ति मन्दिर , नर-नारायण पर्वत
व शेषनेत्र नाम के दो सरोवर आज भी बदरीनाथ विद्यमान हैं । भैरवी चक्र की रचना भी उसी कथा से जुड़ी है।
यह पवित्र क्षेत्र गन्धमादन, नरनारायण आश्रम के नाम से विख्यात था और मणिभद्रपुर (माणा गांव वर्तमान में)
तथा नर-नारायण व कुबेर पर्वत आज मी शोभायमान हैं । माणागाँव के निकट व्यास गुफा में महर्षि वेदव्यास ने
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पारस्परिक संघर्ष ने बदरीनाथ को भी ग्रस्त किया और भगवान की मूर्ति की रक्षा में अपने को असमर्थ पाकर
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भगवान जी ने कहा कि मूर्ति कहीं नहीं गई है और मैं स्वयं अवतार लेकर मूर्ति का उद्धार कर उनकी
पुर्नस्थापना करूंगा ।
शंकर भगवान के अवतार स्वरूप दक्षिण भारत में जगद्गुरू आदि शंकराचार्य जी का जन्म हुआ । वे ग्यारह वर्ष
की अल्पायु में ही जोशीमठ होते हुये बदरीनाथ पधारे और जब मन्दिर खाली देखा तब अपने योगबल तपोवल
से उन्हें प्रतीत हुआ कि मूर्ति नारदकुण्ड में पड़ी हुई है। वे स्वयं नारदकुण्ड में उतरे और मूर्ति को बाहर निकाला ।
जो काले पत्थर की थी । काले पत्थर की मूर्ति को देखकर उन्होंने सोचा कि यह भगवान विष्णु की मूर्ति नहीं हो
सकती है और उन्होंने फिर उसे नारदकुण्ड में डाल दिया और पुनः नारद कुण्ड में डुबकी लगाई किन्तु हर बार
उनके हाथ में वही मूर्ति आई तब उनको विश्वास हो गया कि यही भगवान विष्णु की मूर्ति है । आदि शंकराचार्य
जी ने नारायण की मूर्ति को भैरवीचक्र के केन्द्र में विधिवत उसी स्थान पर स्थापना की जहां पर वह वर्तमान में
विराजमान है । यह भी माना जाता है कि बदरीनाथ जी के मन्दिर का जीर्णोद्धार आदिगुरू शंकराचार्य जी द्वारा
पुनः कराया गया। आदिगुरू शंकराचार्य जी ने जोशीमठ में तपस्या की और ज्योतिष्पीठ कीस्थापना की।
बदरीनाथ के निकट व्यासगुफा में भी आदि शंकराचार्य जी ने चार वर्षों तक निवास कर ब्रह्मसूत्र, गीता,
उपनिषद तथा सनत्शुजातीय पर प्रमाणिक भाष्य लिखा था । भगवान शंकर के अवतार के रूप में जगतगुरू
शंकराचार्य के इस क्षेत्र के हिन्दू मन्दिरों की सुव्यवस्था के प्रबन्ध भी किये और श्री बदरीनाथ को सारे भारतवर्ष
के लिए स्थापित चार धामों में से श्रेष्ठतम धाम के रूप में प्रतिष्ठित किया तथा अन्य तीन धाम द्वारिका, जगन्नाथ
एवं रामेश्वर से सम्बद्ध किया । आज भी इन चारों धामों का भारत की संस्कृति व राष्ट्रीय एकीकरण की दृष्टि से
विशेष महत्व है । श्री शंकराचार्य जी के काल से बदरीनाथ में स्वयं भगवान विष्णु तीर्थ के अधिष्ठाता के रूप में
पूजित हुये और शुद्ध वैष्णव पद्धति से दैनिक नित्य नियम, पूजा-अर्चना प्रारम्भ हुई तभी से यह परम्परा चली
आ रही है । श्री बदरीनाथ मन्दिर के प्रमुख पुजारी दक्षिण भारत के मालावार क्षेत्र के आदि शंकराचार्य के
वंशजों में से ही उच्चकोटि के शुद्ध नम्बूदरी ब्राह्मण ही होते हैं । यह प्रमुख पुजारी रावल के नाम से जाने जाते हैं ।
श्री बदरीनाथ जी की पूजा वैष्णव पद्धति से होती है।